Friday, August 20, 2010

गांव की याद में

ठीक वैसा ही है मेरा गांव
छोड़ आया था जिसे
बीस साल पहले
सूरज की पहली किरण पर तैरती गौरैया
रोज आती थी मनुष्यों के आंगन में
अपनी चोंच में भरकर चावल के दाने
नालियों में पड़े कुछ निर्जीव-से कीड़े
लौट जातीं घोंसलों में
पास बच्चों के
भूख ने सिखा दी थी जिन्हें
असमय
चीं-चीं की आवाज

गोरखा सैनिकों की मानिन्द
चीलों की जमात
उतरती है अब भी
मृतात्माओं की खोज में
पानी की सतह पर फिसलती
लोरिकाइन की मद्धिम ध्वनि।

रात भींगने से पहले
ठीक अपने नियत समय से
तेज और भारी कदमों से चलकर
ठहर जाती है
बच्चों की आंखों की नींद
पर नहीं मिला कहीं
नहीं दिखा उसका अक्स
उन सपनों के
जो रोज आते थे
बीस साल पहले
जवान उम्र की आंखों में
नहीं सुनी,
नहीं सुनी उसकी
एक भी पदचाप!   

(रचना तिथि:17/7/96)

प्रकाशन: आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010                            

7 comments:

  1. कितना बदल गया हूँ में........
    पर गाँव नहीं बदला.

    आभार बरसते मौसम में गाँव की याद दिला दी.

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  2. बहुत ही सुन्दर
    दिल को छूती हुयी रचना
    पढ़कर अच्छा लगा
    -
    -
    आभार
    -
    -
    बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  3. इस नए और सुंदर से हिंदी चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  5. bahut achchhi rachana ke lie dhanayawad.

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  6. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  7. सूरज की पहली किरण पर तैरती गौरैया
    रोज आती थी मनुष्यों के आंगन में
    अपनी चोंच में भरकर चावल के दाने
    नालियों में पड़े कुछ निर्जीव-से कीड़े
    लौट जातीं घोंसलों में
    पास बच्चों के
    भूख ने सिखा दी थी जिन्हें
    असमय
    चीं-चीं की आवाज

    बहुत उम्दा रचना

    http://veenakesur.blogspot.com/

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