हमारी भाषा में
महज एक शब्द नहीं थे
संबंधों की लहलहाती आग थे
उष्णता से जिसकी
पूस की ठंडक में
सिहरता था मेरा
हठीला बचपन।
अपने गांव के विशाल
सार्वजनिक कुएं से ज्यादा गहरे थे
जगत से जिसकी
लटकती थी
एक बार में
सैकड़ों छोटी-बड़ी बाल्टियां
नहीं कांपी कभी
पानी की सतह
विचलित नहीं हुई कभी!
पता नहीं कितनी बार
कौतूहल में
हाथों से सरसराकर
छोड़ी बाल्टी की रस्सी
मापने को थाह
किंतु अबूझ रहा आजतक
पकड़ से बाहर
आदिम! अजनबी स्रोत!!
(18/9/96)
प्रकाशन: आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010
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