मेरी कविताएँ
Tuesday, August 17, 2010
आत्मसंघर्ष
कितनी छोटी है हमारी धरती
कितना तंग है मनुष्यता का घेरा
कि अक्सर बड़ी हो जाती है
अपनी ही छाया
पार करता हूं जिसके
सीने से
ठीक बीचो बीच।
(4.3.96)
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