Friday, July 30, 2010

अपना घर


धूप और बारिश का मारा
खोजता फिर रहा था मैं
घनी, छायादार
किसी वृक्ष की टहनी
लेकिन हर बार
मिलता रहा मुझे ठूंठ
जिस पर बन नहीं सकता नीड़ कोई
रूक नहीं सकती बारिश की बूंद
मैं धूप खाता रहा
भींगता रहा बारिश में
अनवरत, अनथक
देख रहे थे लोग
जो आलीशान भवनों की छत के नीचे
खड़े थे चुपचाप!
मुसकाते- मन ही मन। (25.9.91)

Tuesday, July 27, 2010

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं - राजू रंजन प्रसाद

मेरी कविताएं निज के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अपनी बातों को रखने के लिए मैंने कभी पूर्व-निश्चित विधा का सहारा नहीं लिया। महत्वपूर्ण यह होता है कि बात जो अंदर बन रही है उसका अपना फॉर्म क्या है। अगर कविता की शक्ल में चीजें निर्मित हो रही हैं तो मेरी कोशिश यही होती है कि काव्य के ढांचे/सांचे में ही लोगों के सम्मुख प्रस्तुत हो। किसी खास विधा को ज्यादा या कम महत्वपूर्ण मानने अथवा बताने की राय से मैं अपने को कोसों दूर पाता हूं। अलबत्ता, यह सच है कि रचनाकार किसी खास विधा में अपने को ज्यादा मुखर और समर्थ पाता है। यह बहुत कुछ एक रचनाकार की मानसिक बुनावट और उसके परिवेश पर निर्भर होता है। मुझे यह स्वीकार कर लेने में कि गद्य मेरी अभिव्यक्ति का एक सफल और समर्थ माध्यम है, न तो कोई झिझक हो रही है न संकोच। शायद इसीलिए कविताएं मैंने तभी लिखीं जब गद्य लिखना मेरे लिए लगभग असंभव-सा हो गया।

कहना होगा कि मेरा मूल मिजाज गद्य का है। इसलिए विज्ञ पाठकों और आलोचकों को मेरी कविताओं में अगर गद्यनुमा वाक्य मिलते हों तो न ही यह कोई आश्चर्य की बात होगी और न ही मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी होने की जरूरत महसूस करता हूं। क्षमा इसलिए कि कविता-मात्र को कला-शून्य मानने के पक्ष में शायद ही कोई हो। मैं यह भी नहीं मानता कि कविता महज लद्धड़ वाक्य हो और संवेदना से रहित हो, लेकिन अगर संवेदना उबड़-खाबड़ हो, गद्यात्मक हो, तो शायद यह नहीं कहा जा सकता कि वह काव्य-तत्व से रहित है। क्योंकि यह भाषा ही है जो सौंदर्य की खान है। वैसे भी गद्य एक एक अपेक्षाकृत विकसित समाज की विधा है, इसलिए उसमें सौंदर्य एवं कला का अभाव भला कैसे संभव हो सकता है। अलबत्ता उसका सौंदर्य कविता की तरह आदिम अभिव्यक्ति न होगा।

विडबना कहिए कि मैं कवि बनना चाहता था पर बना निरा गद्यकार, विचार-लेखक। बचपन में अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की कथा-कहानियों के माध्यम से भाषा निर्मित होती रही और एक दिन मैंने अपने को गद्य की दुनिया में खड़ा पाया। शायद शुरू से ही विचार मुझे आकर्षित करते रहे हैं; इसलिए आलोचना और इतिहास की तरफ प्रवृत्त होना परिवेश और समय के दबाव के फलस्वरूप संभव हो सका। एक संक्रमणशील समय में जब लोग विचारों के ‘लोप’ और ‘अंत’ का डंका पीट रहे हैं, मैं ‘कसाईबाड़े’ की तरफ निर्भय बढ़ता जा रहा हूं। मेरी कविताएं, इन अर्थों में, मेरे विचार की अभिव्यक्ति हैं। सुंदर गद्य अचानक और अनायास मेरे अंदर कविता का रूप धारण कर लेता है। गद्य और पद्य का इतना ही अंतर समझ पाया हूं आजतक।

मैंने अपनी पहली कविता सपने से जागकर लिखी थी। तब मैंने प्रेम करना शुरू किया था। तब नींद कम आती थी और सपने अधिक। जब तक जागता होता, बेचैन होता। कविता आने के साथ ही मेरे अंदर एक विचार ने जन्म लिया कि कविताएं गहन प्रेम और सपनों के बीच ही संभव हो सकती हैं। धन्य हैं वे लोग जो ‘सपनों के अंत’ की बात करते हैं और कविता को ‘अजायबघर’ की चीज घोषित करते हैं। यहां मैं यह जोड़ना मुनासिब समझता हूं कि कविता लिखकर भी कवि होने का विश्वास नहीं बटोर पाया था तब। इस क्रम में दो-तीन और कविताओं की रचना संभव हो सकी। कवि कुमार मुकुल को मैंने कविताएं सुनायी और उन्होने सहजता एवं विश्वासपूर्वक ‘कविता’ की श्रेणी में शामिल कर लिया। बस मैंने बाकियों को कविता नहीं सुनाई। शायद ‘घोषित’ कवि होने से बचना चाहता था क्योंकि कविता में मेरी उतनी गति नहीं थी जितने की सभ्य-समाज के लोग मांग रखते हैं।

आरंभ में मेरी कविताओं में महज भावना, संवेदना की सांद्रता होती इसलिए वे अपनी काया में अत्यंत छोटी भी रहीं। छोटी इतनी कि कविता कहने में भी झिझक होती किंतु धीरे-धीरे कविता की काया बढ़ती-फैलती गई। यह भी स्पष्ट कर दूं कि अपनी कविताओं पर काम मैंने कभी नहीं किया। इसलिए कह सकता हूं कि लगभग सारी कविताएं ठीक उसी शक्ल और अंदाज में हैं जैसी वे पहली बार कागज के पन्नों पर आई थीं। इसके दो कारण रहे हैं-एक तो कविता पर काम करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है और दूसरा कि अपने को बचा-छिपा लेने की चालाकी भी नजर आती है इसमें। शायद इसीलिए एक घोर स्त्री विरोधी कवि की कविताएं हम नारी-आन्दोलनों की महान पांत में शामिल करते पाये जाते हैं।

मैंने आज तक जितनी भी कविताएं लिखी हैं, उसे तिथिक्रम के हिसाब से रखने-देने की कोशिश की है। अतएव मैं कह सकता हूं कि मेरी सारी कविताएं इस संग्रह में संकलित हैं। इसके भी दो कारण हैं। पहला व्यक्तिगत जान पड़ सकता है क्योंकि मुझे लगा कि अब और कविताएं फिलहाल लिख पाने की मनःस्थिति में नहीं हूं। दूसरा यह कि कविताओं का चयन कर संग्रह निकालने में मुझे कुछ गड़बड़ी लगती है। कविताओं को छांटते हुए दरअसल हम अपना चेहरा छिपा रहे होते हैं। मेरी कोशिश है कि मैं जैसा हूं उसी शक्ल और अंदाज में उपस्थित हो सकूं तो बेहतर।

पुनश्च, पटना की साहित्यिक मंडली से असहयोग की शक्ल में जो चुनौती मिली है (कुछ अपवादों को छोड़कर) उसके लिए मैं अपने अग्रजों के प्रति नतसिर हूं। यह कहने की जरूरत शायद शेष नहीं कि कविताएं मेरा पक्ष रखती हैं और मैं अपनी कविताओं का। मैं घोषित रूप में अपनी कविताओं की वैचारिक एवं भाषिक गड़बड़ियों के लिए एक अकेला जिम्मेवार हूं क्योंकि कविताएं मेरी निजी अभिव्यक्ति और कृति हैं। लेकिन इसके सरोकार उतने ही सामाजिक हैं जितने मनुष्य हो सकते हैं।

मैं लिखूंगा

जब तक एक दीया जलता है
मैं लिखूंगा
जबतक पृथ्वी अपनी कील पर
घूमती रहती है
अनवरत।
मैं लिखूंगा
मैं जीऊंगा
जबतक राख नहीं कर देता
यमराज की काली काया को
खोल नहीं देता उसका रहस्य
मैं लिखूंगा...

         (25.9.91)