ठीक वैसा ही है मेरा गांव
छोड़ आया था जिसे
बीस साल पहले
सूरज की पहली किरण पर तैरती गौरैया
रोज आती थी मनुष्यों के आंगन में
अपनी चोंच में भरकर चावल के दाने
नालियों में पड़े कुछ निर्जीव-से कीड़े
लौट जातीं घोंसलों में
पास बच्चों के
भूख ने सिखा दी थी जिन्हें
असमय
चीं-चीं की आवाज
गोरखा सैनिकों की मानिन्द
चीलों की जमात
उतरती है अब भी
मृतात्माओं की खोज में
पानी की सतह पर फिसलती
लोरिकाइन की मद्धिम ध्वनि।
रात भींगने से पहले
ठीक अपने नियत समय से
तेज और भारी कदमों से चलकर
ठहर जाती है
बच्चों की आंखों की नींद
पर नहीं मिला कहीं
नहीं दिखा उसका अक्स
उन सपनों के
जो रोज आते थे
बीस साल पहले
जवान उम्र की आंखों में
नहीं सुनी,
नहीं सुनी उसकी
एक भी पदचाप!
(रचना तिथि:17/7/96)
प्रकाशन: आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010
कितना बदल गया हूँ में........
ReplyDeleteपर गाँव नहीं बदला.
आभार बरसते मौसम में गाँव की याद दिला दी.
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteदिल को छूती हुयी रचना
पढ़कर अच्छा लगा
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आभार
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बहुत बहुत बधाई
इस नए और सुंदर से हिंदी चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteब्लागजगत पर आपका स्वागत है ।
ReplyDeleteकिसी भी तरह की तकनीकिक जानकारी के लिये अंतरजाल ब्लाग के स्वामी अंकुर जी,
हिन्दी टेक ब्लाग के मालिक नवीन जी और ई गुरू राजीव जी से संपर्क करें ।
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धन्यवाद
bahut achchhi rachana ke lie dhanayawad.
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
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सूरज की पहली किरण पर तैरती गौरैया
ReplyDeleteरोज आती थी मनुष्यों के आंगन में
अपनी चोंच में भरकर चावल के दाने
नालियों में पड़े कुछ निर्जीव-से कीड़े
लौट जातीं घोंसलों में
पास बच्चों के
भूख ने सिखा दी थी जिन्हें
असमय
चीं-चीं की आवाज
बहुत उम्दा रचना
http://veenakesur.blogspot.com/