Thursday, October 21, 2010

दो ही तो वर्ग हैं

ठीक ही कहते हैं अशोक जी

दो ही तो वर्ग हैं

आदमी के

इस भरी – पूरी दुनिया में

एक है सुविधाभोगी

और दूसरा है भुक्तभोगी

बताइए कि

किस वर्ग में

शामिल हैं आप

पूछता है -

हमारे कसबे का कवि

(21 .10. 2010)

Wednesday, October 20, 2010

एक आदमी ने तय किया


एक आदमी ने
तय किया कि
वह
किसी व्यक्ति के खिलाफ
नहीं लिखेगा

और
उसने जीवन भर
कुछ नहीं लिखा ....

Monday, September 13, 2010

होली के रंग

-डा. विनय कुमार के लिए     


होली में
रंगों के बारे में बातें करें
फिर डरें
कि बातों को रंग लग सकते हैं।
(1. 2.10)

                                                                                                       

Sunday, September 12, 2010

समय का रिवाज नहीं रहा

कुछ लोग हैं जो
शब्दों को तोलते हैं
फिर मुह खोलते हैं
सामने बैठे दोस्त  से
पूछा मैंने-
कुछ सुना
कहा उसने
जी, समझा
बोलना और सुनना
समय का रिवाज नहीं रहा शायद
(रचना: 21.7.03)

प्रकाशन: समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

Saturday, September 11, 2010

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
वहशी बादल डर जाते हैं
मेरा गर्वोन्नत सिर पाकर
समय की विभीषिका राख हो जाती है
पैरों तले कुचली जाकर
समुद्र की फेनिल लहरें अदबदा जाती हैं
अपना मार्ग अवरुद्ध देखकर
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल सफेद जड़ें
और पृथ्वी पर उनके भार को हल्का करता हूं
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं। 
(11.7.01)

Friday, September 10, 2010

मां

मैंने कहा-दुख
और मां का चेहरा म्लान हो गया
शिथिल पड़ने लगीं देह की नसें
कहां रही ताकत
जवान गर्म खून की
दौड़ता फिरे जो
अश्वमेध के घोड़े-सा
मैंने कहा-मां
और उसकी आंखों में आंसू आ गए।

(9.7.01) 
प्रकाशन:  आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8. 2. 2010.

Thursday, September 9, 2010

पहली बारिश के बाद



आज मौसम की पहली बारिश है
और दिखने लगी हैं चीजें
एकदम साफ साफ
दूर तक पसर गई है धरती
और व्योम का विस्तार कुछ बड़ा हो गया है
डर है कहीं बदलनी ही न पड़े
फूटपाठी किताबों में पढ़ी
क्षितिज की अपनी परिभाषा।

गेंहूं और मसूर की दउनी के बाद
पहली बार भींगे हैं छककर बैल
कितने साफ हो गये हैं
पढ़े जा सकते हैं अंकित
इनकी पीठ पर किसानों के दुख।

उधर खुल गया है मुखिया जी का
पहाड़ सा पुआल का पिंज
हांफे दाफे दौड़ रहे मजदूर
मानों मची हो शहर में
लूट दंगे की।

देखते बदल गया सारा गांव
फूस के ढड्ढरों पर चढ़ चुके हैं पुआल
हंस रहे सारे घर
आपस में बतियाते
यही हो प्रसंग शायद
कि देखो कितने खुश हो लेते हैं
हमारे भी गृहस्वामी
फबते हैं कितने कर्ज के कपड़ों में
और पास बैठा रामधनी
पोंछता है अंगोछे से माथे का पसीना।

मुनिया का घर भी कितना पास आ गया है
ठीक-ठीक समझ सकूंगा 
नैनों की भाषा
ईशारे रहस्य नहीं रहेंगे अब
तभी बताते हैं बाबा दूर बसे गांव
बिजौरा के खपड़ों की गिनती और
मेरे मुह से निकलता बदहवास
कितना अच्छा था जाड़े का कोहरा!
(16.6.01)

प्रकाशन:युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002

Wednesday, September 8, 2010

उत्सव मनाते मजदूर

ठीक अभी देख रहे हैं जहां
मध्यवर्गीय इच्छाओं की तरह
पसरी बहुमंजिली इमारत
खाली था वर्षों से भूखंड यों ही
गर्मियों की सुबह खेलते समवयस्क कुत्ते
दांतकाटी  खेल
अपने मुह में दूसरे की पूंछ ले
दौड़ते थे अनथक दौड़
बिल्लियां वहीं दुबकतीं
रात के धने अंधेरे में
टेबल लैंप के जलने से पहले
पब्लिक स्कूल के
भारी बस्ते से बेफिक्र बच्चे
उसे ही मानते
अपना पी. टी. ग्राउंड
देखी है मैंने मकान की नींव पड़ते
साक्षी हूं कि कैसे
अधनंगे मजदूरों ने
धरती को पेरकर बनाये गहरे छेद
सीमेंट, बालू और
लोहे की रॉड के साथ
डाली थी अपनी आत्मा
अपना बेशकीमती श्रम
तौला एक एक ईंट को
तलहत्थियों पर जैसे
पूरा ब्रह्मांड उसकी पकड़ में हो
जेठ की दुपहरी में
पसीने से अजीब हो जाती थी चपचप।

काम करते मजदूर उत्सव मनाते लगते
अलबत्ता थकाता नहीं था उन्हें श्रम
‘मसाला कम पड़ गया काका’
कहते चढ़ जाते
बांस की कमाची जैसी पतली
सीढ़ियों से अकास में
मुझे याद आता कि कैसे
नाप जाता ‘गिरगिटिया’
बड़े से बड़े पेड़ की ऊंचाई
लटकता कैसे फुतलुंगियों से
कुछ भी मानों अलग
अस्तित्व न हो उसका
दिखता ठीक ठीक अंग पेड़ का
लटकता केवल
गुरुत्व बल की दिशा में।

अकेले नहीं थे मजदूर
उतर आये थे कूनबे के साथ मैदान में
नाक से नेटा चुआते बच्चे
घेरे होते वृत्त बनाकर गोल
पत्नियां उठा रही होतीं
बालू भरी कड़ाही
बेकार नहीं था बैठा कोई
यह तो मालिक था
बुत बना जो
देखता एक एक को आश्चर्य से
दिन के उजाले में भी
आंखें फाड़ फाड़कर देखता
मिचमिचा जातीं आंखें
उल्लुओ सी उभरी आगे
सिर्फ वही
नहीं कर रहा होता काम कोई
व्यस्त रहता दिन भर
तानने में छाते धूप की तरफ
दौड़ाता अलग से बच्चों को
पानी के लिए
पड़ोस के चापाकल पर
पीते पानी अचानक
कसैला हो आता मन
सोंचता हो शायद
कि मार देगी
रेत ही देगी गला
अकर्मण्यता उसकी
अ-कला अपनी ?
(26.5.2001)

Tuesday, September 7, 2010

छोटी चीजों का दुख

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीजें
मसलन
मां की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मजदूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख !       

(रचना:18.1.2001)

प्रकाशन: युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010    

चांद

आसमान को तका
और बर्फ-सी चमचम
सफेद दरांती की तरह
उतर आया
फेंफड़ों से होकर पूरे जिस्म में
जाना
दूज का चांद था।
(7.6.97)

Monday, September 6, 2010

माँ

मेरी कविताओं में अक्सर
पत्नी होती है
या होती है अनाम प्रेमिका
मां नहीं होती केवल
कैसे कहूं-
चाहता हूं जब भी
शुरू करना तुमसे
कविता दरक जाती है!
(7.6.97)

Saturday, September 4, 2010

शहर में आदमी

शहर की खचाखच भीड़ में
कितना ऊंचा उठ गया है आदमी
अपनी जमीन से
समाज से और
मूल पहचान से
ठीक जैसे खड़ी हो गई
हर मोड़ पर
बहुमंजिली इमारत
यूक्लिप्टस के पेड़
चिमनियों से उठता धुआं
पलटकर नहीं देखते कभी
धरती की प्यारी सतह।    
(27.4.97)

Friday, September 3, 2010

स्त्री

हमारे सपनों में
खड़ी होती है कहीं
औरत एक
दिखती जो कांपती-सी
हवा के झोंकों से ।      
(27.4.97)

Thursday, September 2, 2010

गाँव और ग्लोब

मकान की छत छूती आलमारी पर
दुनिया की तमाम हलचल से दूर
निस्पृह, रखा पड़ा है-ग्लोब
हल्का झुका है एक तरफ
किसी बड़ी ताकत की इबादत में शायद

बिखरे हैं जीवन के रंग कई
पुता है भिन्न भिन्न देश
गोलार्धों में बंटा
महादेश हमारा

तय हैं रंग सब के
लिखा है महीन मोटे अक्षरों में
समृद्ध करता हमारा ज्ञान
कि कहां है-कौन देश
किस गोल घेरे के अंदर है वह

गुजरता है क्रमशः पूरा मानचित्र
घूम गया गोल, अचानक
बदहवासी में रहा अक्षम
खोजने में असमर्थ
अपना छोटा गांव

उपयुक्त नहीं उसके लिए क्या
ग्लोब का बनावटी रंग
कोई प्रतीक
भाषा कोई अथवा
भौगोलिक घेरा तंग 
बांध  सके जो
या कि
बड़ी है परिधि इतनी
विस्तार इतना कि
नहीं कर सकता कैद
गिर रहा खुद जो
संभलने की कोशिश में
मानवता की विरुद्ध दिशा!  

(रचना:26.2.97)

प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

Wednesday, September 1, 2010

चिंतित हैं कुत्ते

मनुष्यों के जीवन-सा
वैभव है कुत्तों का
आदिम इतिहास है उनका भी
धरती का सबसे वफादार  जीव था
जो घूमता था
हमारी झोंपड़ियों के गिर्द
चमड़ी की  फिराक में
शान्त करने को क्षुधा

तब टांगें थी
दौड़ने की कला थी
पकड़ सकता था
जंगली जानवर

शिकारियों से भी तेज
गंध सूंघने की ताकत थी
सूंघ सकता था स्वयं शिकारी को
सख्त से सख्त दांत थे
चीथने को मांस के लोथड़े
हड्डियों से अलग करने की तरकीब थी
लंबी-टेंढ़ी पूंछ थी
हिलाया करता था जिसे
मालिक की वफादारी में
हर फेंके गये टुकड़े के एवज में
उसके पास

इधर चिंतित है कुत्ते
कि अपना लिए धीरे-धीरे
सारे गुण मनुष्यों ने
और बेकार होने लगी है
उसकी अपनी प्रजाति

हुआ है कुछ अजीब-सा मजाक
कि आ गई हैं नस्लें नई-नई
दुमकटे-दुमदबे कुत्तों की
अवकाश के क्षण में बैठा कुत्ता
सोचता है भारी मन से
कि करे इजाद नयी चीज की
दिखे जो ठीक-ठीक पूंछ-सी
हिला-डुला सके
मालिक की धड़कन से भी तेज

और सोच रहा है मनुष्य
बेकार बैठा है कुत्ता
निठल्लापन सिखाएगा पूरी कौम को
फैलाएगा अलग से
वायरस रेबीज का
बेहतर है इससे
भलाई है इसमें
मार दो इसे
चला दो गोली अभी।
( 22. 1. 97)

Tuesday, August 31, 2010

कमजोर क्षण की औरतें

कमजोर नहीं थी स्त्री
पैदा हुई जब
इस बड़ी धरती पर
बढ़े थे उनके भी कदम
अनंत दूरी के लिए
खानाबदोश मर्दों व नये
पालतू बने पशुओं के साथ
डसी ने खोजी
घर की देहरी पर खड़ी
फसलें लहलहातीं अनगिनत
सूप  से फटकने और
बिछने के क्रम में
छितरा गई होंगी इधर-उधर
बीज-रूप में।

ठीक फसलों की तरह
आई होगी बाढ़ उनकी भी
उठे होंगे उनके भी कदम
लांघने को पहाड़
हिमालय जैसे
नदियां उसने भी पार की होंगी
बनाये उसने भी रास्ते
चलकर पहुंची जिनसे
एशिया और यूरोप के मुल्कों में
बचे रह गये जहां
स्मृतियों में जंगली शेर और चीते।

कमजोर नहीं थी स्त्री
पार करने को नदी
जब बनाई उसने डोंगी
बांस की खपचियों से
और कूद गई उसमें
कमजोर नहीं थी
निकल आई बाहर
लांघती दोनों किनारों को
जवान नदी के
एक ही सांस में
नदी के किनारे की
देख तमपूर्ण फैली हरियाली
रूक गई
मिट्टी के लोंदे को सान सान
बांस-फूस से घेरी
दो गज जमीन और
कही पहली बार
उसका है धरती का टुकड़ा
बसाया अपना सबसे छोटा घर
मनुष्यों के सबसे छोटे ग्रह पर
मर्दों ने किया प्रवेश
बाहर से
हमलावर की तरह
शुरू होती है यहीं से
पराधीनता इतिहास की
स्त्रियों के सजाए घर में
किया मर्दों ने प्रवेश
जब बाहर से
दिया अनचाहा गर्भ औरतों को
कमजोर हुई तभी
शायद
सबसे कमजोर
हमारी स्त्रियां।         
(20.1.97)

Monday, August 30, 2010

सूरज और कविता

कुहरिल भोर का
टिमटिमाता तारा नहीं है कविता
पहली किरण है फैलते सूर्य की
खोलती है जो
बंद मनुष्यों के
कई-कई द्वार
देख बढ़ते जिसे
पीठ पर टिकाये नन्हा बच्चा
गांव की मजदूरिनें
अपने काम पर
जैसे
चील अपनी चोंच में ले
उड़ती है मांस का टुकड़ा
शिकारी नजरों से बच-बचाकर।

अनंत की खोज में निकला पक्षी
अपनी ही धरती के दूसरे कोने को
तलाशता नाविक
टोहता है सही मार्ग
दुरुस्त करता दिशा-ज्ञान
पा लेता है यायावर
जमाने का कोई नवीन यूटोपिया।

स्कूल जाता बच्चा
तेज करता है कदम
और ढलते सूरज को देख
हल से बैल को अलग करता हलवाहा
झाड़कर हाथ-पांव
थोड़ी निश्चिंतता से
सुस्ताता खेत की मेड़ पर
मानो
आ चुका हो
दासता से मुक्ति का
चिर-प्रतीक्षित समय! 
( 9. 1. 97)                                            

Sunday, August 29, 2010

नया साल

कहते कि नया साल आया
पहले से थोड़ा ज्यादा मुस्काया
खिला चेहरा
गाल कुछ लाल हुआ
महसूस किया पहले से ज्यादा
बढ़ा ताप उसका
हंसने के क्रम में
लगा खिंचा-खिंचा
चेहरा अपना सुकुमार
तन गईं भवें, बढ़ गई
झुर्रियों की लंबाई व गहराई
हो चुका गहरा गड्ढों का निशान
बांध दी हो मानो किसी ने
आंखों पर गहरी काली पट्टी!
(रचना: 1.1.97)

प्रकाशन: आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010

Saturday, August 28, 2010

वैभव कटे वृक्षों का

बीसवीं शती के आखिरी दशक में
शहर की चकाचौंध
और भागदौड़ से दूर
विस्तृत धरती के सबसे छोटे कोने में
बसा है हमारा प्यारा गांव
जहां दशहरे के पुनीत अवसर पर
दिखता है बैठा प्यारा नीलकंठ
अड़ियल घोड़े-से
सीधे तने बिजली के खंभे पर ।

जाने कहां गये बचपन के वे दिन
जब हाथ में लट्टू ले
दौड़ता था लोहार की भाथी के पास
काफी मिहनत के बाद
तेज कर पाता था
मसाला पीसने के सिलउट पर
लोहे की नुकीली गूंज
खेलते थे मिलजुल
गाँव  के सारे बच्चे
अपना प्रिय खेल-‘बेलाफार’।

हल से छूटे बैल
घास चरकर बथान लौटती गाएं
स्कूल से थककर चूर मास्टर साऽब
और लड़कों के लौटने से पहले
काबिज हो जाती थी घरों में
अंधेरी डरावनी रात।

खत्म होती है मानवता और संवेदना
शहरों/महानगरों में जैसे
ठीक खत्म हो गये सारे पेड़
लुप्त हो गई वृक्षों की कई प्रजातियां
अमर संजीवनी बूटियां
निचोड़कर रस करते थे अमरपान
जेठ की दुपहरी और लहलहाती धूप में
लुट गया पशुओं का घर
छाया में जिसकी
जीभ निकाल हांफता कुत्ता
बैठता घंटों
मनुष्यों का शागिर्द बना।

पेड़ों के कटने से
कट गई हमारी आत्मा
बसती थी जो
उनसे जुड़ी कहानियों, कल्पनाओं में
दरवाजे के सामने जो खड़ा था
मोटा काला पीपल का पेड़
नीचे जिसके हुआ था
कई पूर्वजों का तर्पण, दान
कई वर्षों से जान लो
वहीं का वहीं गड़ा और अड़ा था
भीषण गर्मियों में पत्तियों के हिलने से
मिलती थी अजीब राहत
पसीने से लतपथ भारी शरीर को।

वे गये तो गईं हमारी यादें
सबसे ऊंची डाल से जिनकी
कूदता था छप! छप!!
रात के अंधेरे में
कूदता जैसे अब उसका भूत
जब कभी आती थी वर्षा
पहली चोट सहता
बूढ़ा आहत पीपल
दूर से आती कंटीली
बर्फीली हवा कंपाती रह रह
मनुष्यों के आंगन में
बिजली गिरने के भय से पहले
लड़ता वही, करता दो-दो हाथ
कटता उसी का सर
उसी की ठूंठ बनती
आश्रय बनता था वही
पहली बार
‘मरी’ की चिंता में बैठे
चीलों-गिद्धों के लिए।

हहास करती आती बाढ़ के समय
हिलतीं उसकी जड़ें किंतु
बांधे रहती मिट्टी को
टिका था जिस पर प्यारा गांव
रहते जहां कलाकार कई
ढेरों कवि
रचनाओं में जिनकी
चोर-कदम आती है याद
कटे वृक्षों की।

मूर्ख नहीं हैं हम
नहीं है गंवार कोई
कि भूल जायें संजोना पेड़ों को
उगा लिये हैं इसीलिए
गमलों में कैक्टस
ढूंस लिये हैं 
कई जंगली पौधे
मत कहो मुझे पर्यावरण विरोधी
जानता हूं उसके दर्शन
उसकी महत्ता
परिचित हूं गुणकारी तत्वों से उसके
दिखती नहीं तुम्हें
मुठरिया सीज की टहनी
टिका रखी है कोने में
सउरीघर के
जनी है जहां
एक बेखबर मां ने
सबसे कमजोर क्षण का बच्चा।
(1.1.97)

Friday, August 27, 2010

सुबह का सूरज

लाल गुलाबी सूरज
चिपका है जो बादलों से अभी
आग का गोला है
अथवा बिन्दी माथे की
उड़ा दी है जिसे हवा में
शैतानी हरकतों ने
किसी क्रूर पति की
उठेगी अभी मां कोई
सुगाहिन टांक लेगी माथे से
बचाकर दुनिया की तेज नजरें
कि वह लाल बड़ी गेंद है
चपल बालिका की
रूठ गई है जो मनमानी से उसकी
टंग गई है जाकर दूर
छोटे पड़ते हैं जहां
नन्हे कोमल हाथ।

अरे! अब तो निराश हो
लौट चली है बालिका
घर को
भांप उसकी पीड़ा
गतिमान हो लिया है सूरज
बच्ची की तेज थिरकती टांगों से
बिठाकर मेल
सरकती है आकाशीय गेंद
खुश है लड़की
मन ही मन
कि गिरेगी अब सीधे
गोल आंगन में उसके
चूम लेगी जी भर
रख देगी सुरक्षित
टूटी टिन की पेटियों में
हंसती पड़ी है जहां
बचपन की रंगीन गुड़िया
बालों से जिसके
आती है रह-रह
केसर-सी खुशबू।
(25.12.96)                    

चिड़िया की बच्ची

पक्षी-प्रेम की विवशता में
एक दिन अचानक
पकड़ ली आखिर
चिड़िया की छोटी बच्ची।
लोहे के पिंजरे में डाल
इतमीनान हो लिया कवि-मन
कि रोज-रोज निहारूंगा
पुचकारूंगा रोज-रोज
रोम-रोम पुलकित होगा
मेरा पक्षी-प्रेम
कि अचानक
क्या सूझी
छोटी-सी जान को
काटने लगी लौह-दीवार
नन्हीं चोंच से
भर आया मुँह
अपने ही खून से
कि टोका पत्नी ने
चार बरस के बेटे ने डांटा-
‘पापा छोड़ दो इसे
नहीं, लिखेगा तुम्हें
भारी पाप!’
मेरे आहत मन ने
छोड़ दिया उसे
मुक्त कर दिया बिल्कुल
खुश हुआ सोचकर
बाद क्षण-भर
कि चलो
मरा नहीं है
जीवित है अब भी
अंदर का आदमी।      

(रचना तिथि:18/12/96)  
प्रकाशन: आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010

Wednesday, August 25, 2010

कवि का चेहरा

आ सको अगर
तो आओ मेरी कविता में
नंगे पांव चलकर
पारकर तप्त
रेतीले मैदान
कि हों फोड़े
पड़े  छाले
रिसे बूंद खून की
तो दिखे साफ
तुम्हारा
अपना ही चेहरा।

(18.12.96)

Tuesday, August 24, 2010

गौरैये का गुस्सा

आइने से क्यों बढ़ गई है
डाह गौरैये की
जो मारने लगी है चोंच
गुस्सा है शायद
कि क्यों दिखाता है उसे
उसका असली चेहरा
करे कुछ वैसा
दिखे जिससे वही
चाहती दिखना औरों को
मनुष्यों की तरह।      

(11.12.96)

गांव की सुबह

अंधेरे में लिपटा आसमान
भागा जा रहा है
किसी अनिश्चित दिशा में
शायद शून्य की तरफ।

अभी ठीक कुछ ही क्षणों में
बोल उठेगा गुबरैला मुर्गा
धूल-भरी गलियों में
कोमल पांख पसार
धूप सेंकेगी
धरती की सबसे छोटी गौरैया।

कांव-कांव करता कौआ
तोड़ेगा सबकी
अलसायी नींद
तभी सुन पड़ेगी
गांव की सबसे ऊंची मस्जिद से
किसी पेशेवर मौलवी की
लंबी,
रिरिआती आवाज!

सबसे पहले
खूंटे से बंधी
रंभाती बुलायेगी गाय
भर देगी घर की
सबसे बड़ी टहरी
देख जिसे बच्चे
नाचेंगे सबसे ज्यादा
निज माताओं को देते उपालम्भ
सूखा ली हैं जिनने
स्तन की सारी नसें
फूटता था जिससे, कभी
अमर
संजीवनी स्रोत!
हंसेगी तभी
सारी दिशाएं
और ठीक क्षण भर बाद
दिख जायेगा गोल
लाल भभूका सूरज
मानों सुदर परी एक
थोप ली हो
जिद में किसी की
दुनिया भर का सिन्दूर
अपने दिव्य भाल पर
या कि निकला हो अभी-अभी
लेकर धरती का सत्
चने का नया अंकुर।

लो, आ गया
क्षितिज पर प्यारा सूरज
हंस दिया हो जैसे
लाल, सुर्ख होठों से
रात का जन्मा बच्चा एक
फंसी है जिसमें बाकी
उसकी आधी हंसी।     
(5.10.96)

Sunday, August 22, 2010

दिवंगत चाचा के प्रति-1

हमारी भाषा में
महज एक शब्द नहीं थे
संबंधों की लहलहाती आग थे
उष्णता से जिसकी
पूस की ठंडक में
सिहरता था मेरा
हठीला बचपन।

अपने गांव के विशाल
सार्वजनिक कुएं से ज्यादा गहरे थे
जगत से जिसकी
लटकती थी
एक बार में
सैकड़ों छोटी-बड़ी बाल्टियां
नहीं कांपी कभी
पानी की सतह
विचलित नहीं हुई कभी!

पता नहीं कितनी बार
कौतूहल में
हाथों से सरसराकर
छोड़ी बाल्टी की रस्सी
मापने को थाह
किंतु अबूझ रहा आजतक                             
पकड़ से बाहर
आदिम! अजनबी स्रोत!!          

(18/9/96)

प्रकाशन: आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010                    

Saturday, August 21, 2010

दिवंगत चाचा के प्रति-2

सघन बड़ी मूंछों को
चीरती निकलती तुम्हारी हंसी
फैल जाती थी
पूरे घर की हवा में
काट डालती निज का सन्नाटा
जैसे क्षितिज पर निकलता
लाल गोल सूरज
फैलाकर समस्त प्रकाश
पाट देता है
संपूर्ण पृथ्वी की
पहाड़ों-घाटियों की अतल गहराइयों को।

तुम भी थे कितने अद्भुत
कहते रहे गांधी को
‘नेहरु का पालतू कुत्ता’
खुद पहना उसी का बाना
खादी की फटी धोती में
लिपटी तुम्हारी काया
बनी रही अजेय
अपनी ही दृढ़ता से
बीमार मौसम में।

दी तुमने गाली
सबसे ज्यादा मार्क्स को
और खुद को चिपका पाया
किम इल सुंग की जिल्दों में
उलझा रहा बेबस मन
खो गया उन्हीं अक्षरों में कहीं
हर पढ़े पन्ने में
छोड़ जाते थे अपने
दबंग दस्तखत के निशान।

समझ न पाया मैं
तुम्हारा राज
कि क्यों तुम्हें
जींस पैंट के ऊपर
पहना हमारा कुरता
नहीं भाया कभी
कहो-कैसा-?
कैसा था तुम्हारा सौंदर्य-बोध ? ?

घर की एक-एक चीज
जो थी तुम्हारी
धरी है सब की सब
अभी तक सुरक्षित
म्यूजियम में पड़ी तलवारों की तरह नहीं
एक जीवित मनुष्य की तरह
जो बात करती है अक्सर
तोड़ती है दूसरे कइयों के
अंदर का सन्नाटा।

जब-जब टिकती है मेरी नजर
जोरों की आवाज से फड़फड़ाता है
उसका सारा पन्ना
संजोकर रखा था जिसे मैंने
तुम्हारे जाने के बाद
मचलती है दुधमुंही  बच्ची-सी
देने को सहारा
घर के कोने में पड़ी
निस्संग तुम्हारी लाठी

एक दिन अचानक
पकड़ूंगा उसे और
निकल जाऊंगा दूर
बहुत दूर-
पार उसके भी
बंद होते हैं जहां
तमाम हमारे रास्ते
पूरी दुनिया के तमाम रास्ते।

मिट्टी
पानी
और हाड़-मांस की
नहीं बनी थी तुम्हारी काया
दौड़ती थी खून की जगह
नसों में
तेज रफ्तार की जिद
जीवन जिद था तुम्हारे लिए
इच्छाएं जिद थीं
प्यार भी जिद था
बिल्कुल जिद की तरह आई
तुम्हारी मृत्यु

हंसो
हंसो कि तुम्हारी संतानें
कहीं ज्यादा सख्त हैं
सिखाया नहीं करना
‘तुच्छ जीवन’ के लिए
‘महान समझौते’
हाय! कहो
कि यह भी कोई जिद थी तुम्हारी ?         
(3.11.96)

Friday, August 20, 2010

गांव की याद में

ठीक वैसा ही है मेरा गांव
छोड़ आया था जिसे
बीस साल पहले
सूरज की पहली किरण पर तैरती गौरैया
रोज आती थी मनुष्यों के आंगन में
अपनी चोंच में भरकर चावल के दाने
नालियों में पड़े कुछ निर्जीव-से कीड़े
लौट जातीं घोंसलों में
पास बच्चों के
भूख ने सिखा दी थी जिन्हें
असमय
चीं-चीं की आवाज

गोरखा सैनिकों की मानिन्द
चीलों की जमात
उतरती है अब भी
मृतात्माओं की खोज में
पानी की सतह पर फिसलती
लोरिकाइन की मद्धिम ध्वनि।

रात भींगने से पहले
ठीक अपने नियत समय से
तेज और भारी कदमों से चलकर
ठहर जाती है
बच्चों की आंखों की नींद
पर नहीं मिला कहीं
नहीं दिखा उसका अक्स
उन सपनों के
जो रोज आते थे
बीस साल पहले
जवान उम्र की आंखों में
नहीं सुनी,
नहीं सुनी उसकी
एक भी पदचाप!   

(रचना तिथि:17/7/96)

प्रकाशन: आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010                            

Thursday, August 19, 2010

पत्नी के प्रति

दुनिया के सबसे महान
और
सुंदर चीजों में सबसे ज्यादा
आकर्षित करती है मुझे-
मेरी पत्नी
उसकी सबसे छोटी खुशी
सबसे बड़ी होती है
सबसे ज्यादा हंसाती है
सबसे छोटी हंसी
और
सबसे छोटी काया
लगती है मुझे
संपूर्ण धरती पर फैली
अंतरिक्ष की सबसे बड़ी नदी।

(17.7.96)

प्रेमिकाएं

जब सूरज थक जायेगा
चांद उतर आयेगा नीचे
पगडंडियां छोड़ देंगी हमें
हमारा साथ
थोड़ी दूरी के बाद
याद आयेंगी हमें
हमारी प्रमिकाएं।
(4.3.96)

Tuesday, August 17, 2010

मां

छोटा है सबसे
दुनिया का सबसे उम्रदराज आदमी
केवल अबोध
मां की नजरों में
गर्भ में पीता है जिसके
रक्त
जीवन के
नौ महीने।

(4.3.96)

आत्मसंघर्ष

कितनी छोटी है हमारी धरती
कितना तंग है मनुष्यता का घेरा
कि अक्सर बड़ी हो जाती है
अपनी ही छाया
पार करता हूं जिसके
सीने से
ठीक बीचो बीच।        

(4.3.96)   

Monday, August 16, 2010

छात्रावास में लड़कियां

1.

पकी ईंटों से बनी उनकी दीवारें
कितनी निर्मम
कितनी कठोर होती हैं
भेदकर जिसे
अंदर नहीं जा सकती
बाहर की ठंडी और गुदगुदी हवा
डोल जाता है जिसके छूते ही
बड़ा से बड़ा पेड़
जिसकी कई शाखाएं बेजान होती हैं
और सज जाता है विशाल वृक्ष
अपनी कचनार पत्तियों के साथ।

कई बार
कई लड़कियां
आती हैं सहेलियों के साथ 
सोचती  हुई
कि ढाह देंगी
इन पुरानी पड़ी दीवारों को
कि अंदर बैठा खौफ
बोलता है ऊंची आवाज में-
दीवारों के टूटने से घर
घर नहीं रह जायेगा
सड़क आम हो जायेगी
जहां कोई भी असभ्य राहगीर
चलते-चलते
मूत्रत्याग की इच्छा रखेगा।

2.
लड़कियां केवल तभी खुश होती हैं
जब मौसियां थमाती हैं
हाथ में
छोटी-सी अर्जी
लिखा हो जिसमें
मिलनेवाले का नाम
कि लड़कियां दौड़ती हुई आती हैं
केवल उसी रात सपने देखती हैं
देर रात
अधजगे में।

3.
बिछड़ने की सूरत में
अंदर से कितनी कठोर होती हैं लड़कियां
खुद को मजबूत करने की कोशिश में
विदा हो लेती हैं अचानक
कि जैसे
मिली ही न हो किसी से
गुस्सैल आंखों में
शांत नदी को समेटे हुए
बह निकलती है जो
रात में
एकांत के बिस्तरे पर। (20.2.96)

प्रकाशन: न्यूजब्रेक, साहित्य वार्षिकी 2001; आजकल, सितंबर 2007

बच्चे

प्यार के दुश्मन नहीं होते बच्चे
वे तो चाहते हैं
अपनी मां का वजूद
उनका प्यार
जिसे हम दफन कर चुके होते हैं
कई साल पहले
महज पत्नी के रूप में।
(15.4.95)

पत्नी के बगैर

पास नहीं होती जब
मेरी पत्नी
दिन बड़ा हो जाता है
बढ़ जाता है अचानक
रात का घना अंधेरा
उड़ जाती है लगातार
कई रातों की नींद
नहीं आता एक भी सपना
नहीं सुनता घड़ी की टिक-टिक
जैसे बंद हो गई लगती है
पृथ्वी की गति
संवेदना की अकाल मृत्यु के साथ।
(21.2.95)

Sunday, August 15, 2010

पत्नी

पहली बार जाना
कि तू एक औरत है
पत्नी है
और
मां है
तेरे स्पर्श से
जाना मैंने
कि मरु की मरीचिका
या बहकती लू में
ठंडे पानी के सोते से
कहीं ज्यादा सुखद है
तेरी लंबी
पतली होती परछाई। (12.12.91)

साहस

सागर का तट
छोटा पड़ जाता है
जब फैलाता हूं अपनी बांहें
सिमट आता है सारा आकाश
पर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस।
(21.11.91)

एक शाम

एक शाम
जब बैल आते हैं
हल से खुलने के बाद
नाद पर
हर पहचानी शाम की तरह
और शहर का बाबू
अपने उदास कमरे मे।

एक शाम
जब डाइनिंग टेबल पर
होती हैं बहसें
जनमत और जनतंत्र पर।

एक शाम
जब आंगन में पड़ा मिट्टी का चूल्हा
उदास रोता है
और
एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और चुप्पी के साथ। (रचना: 29.10.91)

प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

मौत की सालगिरह

ईमान बेचकर जीनेवाले लोग
अपनी आत्मा को
अपनी मौत को
और अपने वजूद को
मुट्ठी में लिए चलते हैं
मौत की सालगिरह मनाते हैं
मगर हम जानते हैं
मरना महज फैशन है
लोगों को रिझाने के वास्ते
उनको ठोंककर सुलाने के वास्ते
डावर की घुट्टी है, जिसे
हर दूधमुंहे को पिलाते हैं
लेकिन
वे बताएंगे मौत की असलियत
जिन्हें जीने के लिए
रोज मरना होता है
कई-कई बार
इसीलिए शायद
वे मौत से कहीं ज्यादा डरते हैं
रोज-रोज सालगिरह नहीं आती उनके यहां
सिर्फ एक बार आता है, उनका जन्मदिन
और दिखा जाता है मौत को
एक साहसपूर्ण ठेंगा
जीवन के बाकी बचे दिन के लिए।

Friday, July 30, 2010

अपना घर


धूप और बारिश का मारा
खोजता फिर रहा था मैं
घनी, छायादार
किसी वृक्ष की टहनी
लेकिन हर बार
मिलता रहा मुझे ठूंठ
जिस पर बन नहीं सकता नीड़ कोई
रूक नहीं सकती बारिश की बूंद
मैं धूप खाता रहा
भींगता रहा बारिश में
अनवरत, अनथक
देख रहे थे लोग
जो आलीशान भवनों की छत के नीचे
खड़े थे चुपचाप!
मुसकाते- मन ही मन। (25.9.91)

Tuesday, July 27, 2010

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं - राजू रंजन प्रसाद

मेरी कविताएं निज के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अपनी बातों को रखने के लिए मैंने कभी पूर्व-निश्चित विधा का सहारा नहीं लिया। महत्वपूर्ण यह होता है कि बात जो अंदर बन रही है उसका अपना फॉर्म क्या है। अगर कविता की शक्ल में चीजें निर्मित हो रही हैं तो मेरी कोशिश यही होती है कि काव्य के ढांचे/सांचे में ही लोगों के सम्मुख प्रस्तुत हो। किसी खास विधा को ज्यादा या कम महत्वपूर्ण मानने अथवा बताने की राय से मैं अपने को कोसों दूर पाता हूं। अलबत्ता, यह सच है कि रचनाकार किसी खास विधा में अपने को ज्यादा मुखर और समर्थ पाता है। यह बहुत कुछ एक रचनाकार की मानसिक बुनावट और उसके परिवेश पर निर्भर होता है। मुझे यह स्वीकार कर लेने में कि गद्य मेरी अभिव्यक्ति का एक सफल और समर्थ माध्यम है, न तो कोई झिझक हो रही है न संकोच। शायद इसीलिए कविताएं मैंने तभी लिखीं जब गद्य लिखना मेरे लिए लगभग असंभव-सा हो गया।

कहना होगा कि मेरा मूल मिजाज गद्य का है। इसलिए विज्ञ पाठकों और आलोचकों को मेरी कविताओं में अगर गद्यनुमा वाक्य मिलते हों तो न ही यह कोई आश्चर्य की बात होगी और न ही मैं इसके लिए क्षमाप्रार्थी होने की जरूरत महसूस करता हूं। क्षमा इसलिए कि कविता-मात्र को कला-शून्य मानने के पक्ष में शायद ही कोई हो। मैं यह भी नहीं मानता कि कविता महज लद्धड़ वाक्य हो और संवेदना से रहित हो, लेकिन अगर संवेदना उबड़-खाबड़ हो, गद्यात्मक हो, तो शायद यह नहीं कहा जा सकता कि वह काव्य-तत्व से रहित है। क्योंकि यह भाषा ही है जो सौंदर्य की खान है। वैसे भी गद्य एक एक अपेक्षाकृत विकसित समाज की विधा है, इसलिए उसमें सौंदर्य एवं कला का अभाव भला कैसे संभव हो सकता है। अलबत्ता उसका सौंदर्य कविता की तरह आदिम अभिव्यक्ति न होगा।

विडबना कहिए कि मैं कवि बनना चाहता था पर बना निरा गद्यकार, विचार-लेखक। बचपन में अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की कथा-कहानियों के माध्यम से भाषा निर्मित होती रही और एक दिन मैंने अपने को गद्य की दुनिया में खड़ा पाया। शायद शुरू से ही विचार मुझे आकर्षित करते रहे हैं; इसलिए आलोचना और इतिहास की तरफ प्रवृत्त होना परिवेश और समय के दबाव के फलस्वरूप संभव हो सका। एक संक्रमणशील समय में जब लोग विचारों के ‘लोप’ और ‘अंत’ का डंका पीट रहे हैं, मैं ‘कसाईबाड़े’ की तरफ निर्भय बढ़ता जा रहा हूं। मेरी कविताएं, इन अर्थों में, मेरे विचार की अभिव्यक्ति हैं। सुंदर गद्य अचानक और अनायास मेरे अंदर कविता का रूप धारण कर लेता है। गद्य और पद्य का इतना ही अंतर समझ पाया हूं आजतक।

मैंने अपनी पहली कविता सपने से जागकर लिखी थी। तब मैंने प्रेम करना शुरू किया था। तब नींद कम आती थी और सपने अधिक। जब तक जागता होता, बेचैन होता। कविता आने के साथ ही मेरे अंदर एक विचार ने जन्म लिया कि कविताएं गहन प्रेम और सपनों के बीच ही संभव हो सकती हैं। धन्य हैं वे लोग जो ‘सपनों के अंत’ की बात करते हैं और कविता को ‘अजायबघर’ की चीज घोषित करते हैं। यहां मैं यह जोड़ना मुनासिब समझता हूं कि कविता लिखकर भी कवि होने का विश्वास नहीं बटोर पाया था तब। इस क्रम में दो-तीन और कविताओं की रचना संभव हो सकी। कवि कुमार मुकुल को मैंने कविताएं सुनायी और उन्होने सहजता एवं विश्वासपूर्वक ‘कविता’ की श्रेणी में शामिल कर लिया। बस मैंने बाकियों को कविता नहीं सुनाई। शायद ‘घोषित’ कवि होने से बचना चाहता था क्योंकि कविता में मेरी उतनी गति नहीं थी जितने की सभ्य-समाज के लोग मांग रखते हैं।

आरंभ में मेरी कविताओं में महज भावना, संवेदना की सांद्रता होती इसलिए वे अपनी काया में अत्यंत छोटी भी रहीं। छोटी इतनी कि कविता कहने में भी झिझक होती किंतु धीरे-धीरे कविता की काया बढ़ती-फैलती गई। यह भी स्पष्ट कर दूं कि अपनी कविताओं पर काम मैंने कभी नहीं किया। इसलिए कह सकता हूं कि लगभग सारी कविताएं ठीक उसी शक्ल और अंदाज में हैं जैसी वे पहली बार कागज के पन्नों पर आई थीं। इसके दो कारण रहे हैं-एक तो कविता पर काम करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है और दूसरा कि अपने को बचा-छिपा लेने की चालाकी भी नजर आती है इसमें। शायद इसीलिए एक घोर स्त्री विरोधी कवि की कविताएं हम नारी-आन्दोलनों की महान पांत में शामिल करते पाये जाते हैं।

मैंने आज तक जितनी भी कविताएं लिखी हैं, उसे तिथिक्रम के हिसाब से रखने-देने की कोशिश की है। अतएव मैं कह सकता हूं कि मेरी सारी कविताएं इस संग्रह में संकलित हैं। इसके भी दो कारण हैं। पहला व्यक्तिगत जान पड़ सकता है क्योंकि मुझे लगा कि अब और कविताएं फिलहाल लिख पाने की मनःस्थिति में नहीं हूं। दूसरा यह कि कविताओं का चयन कर संग्रह निकालने में मुझे कुछ गड़बड़ी लगती है। कविताओं को छांटते हुए दरअसल हम अपना चेहरा छिपा रहे होते हैं। मेरी कोशिश है कि मैं जैसा हूं उसी शक्ल और अंदाज में उपस्थित हो सकूं तो बेहतर।

पुनश्च, पटना की साहित्यिक मंडली से असहयोग की शक्ल में जो चुनौती मिली है (कुछ अपवादों को छोड़कर) उसके लिए मैं अपने अग्रजों के प्रति नतसिर हूं। यह कहने की जरूरत शायद शेष नहीं कि कविताएं मेरा पक्ष रखती हैं और मैं अपनी कविताओं का। मैं घोषित रूप में अपनी कविताओं की वैचारिक एवं भाषिक गड़बड़ियों के लिए एक अकेला जिम्मेवार हूं क्योंकि कविताएं मेरी निजी अभिव्यक्ति और कृति हैं। लेकिन इसके सरोकार उतने ही सामाजिक हैं जितने मनुष्य हो सकते हैं।

मैं लिखूंगा

जब तक एक दीया जलता है
मैं लिखूंगा
जबतक पृथ्वी अपनी कील पर
घूमती रहती है
अनवरत।
मैं लिखूंगा
मैं जीऊंगा
जबतक राख नहीं कर देता
यमराज की काली काया को
खोल नहीं देता उसका रहस्य
मैं लिखूंगा...

         (25.9.91)