पक्षी-प्रेम की विवशता में
एक दिन अचानक
पकड़ ली आखिर
चिड़िया की छोटी बच्ची।
लोहे के पिंजरे में डाल
इतमीनान हो लिया कवि-मन
कि रोज-रोज निहारूंगा
पुचकारूंगा रोज-रोज
रोम-रोम पुलकित होगा
मेरा पक्षी-प्रेम
कि अचानक
क्या सूझी
छोटी-सी जान को
काटने लगी लौह-दीवार
नन्हीं चोंच से
भर आया मुँह
अपने ही खून से
कि टोका पत्नी ने
चार बरस के बेटे ने डांटा-
‘पापा छोड़ दो इसे
नहीं, लिखेगा तुम्हें
भारी पाप!’
मेरे आहत मन ने
छोड़ दिया उसे
मुक्त कर दिया बिल्कुल
खुश हुआ सोचकर
बाद क्षण-भर
कि चलो
मरा नहीं है
जीवित है अब भी
अंदर का आदमी।
(रचना तिथि:18/12/96)
प्रकाशन: आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010
सुन्दर रचना. वैसे हमारे ख्याल से कोई भी कविहृदय व्यक्ति किसी पक्षी को पिंजड़े में नहीं डालेगा.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता........
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