एक शाम
जब बैल आते हैं
हल से खुलने के बाद
नाद पर
हर पहचानी शाम की तरह
और शहर का बाबू
अपने उदास कमरे मे।
एक शाम
जब डाइनिंग टेबल पर
होती हैं बहसें
जनमत और जनतंत्र पर।
एक शाम
जब आंगन में पड़ा मिट्टी का चूल्हा
उदास रोता है
और
एक शाम आती है
वीरान गांवों में
आतंक और चुप्पी के साथ। (रचना: 29.10.91)
प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

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