Monday, August 30, 2010

सूरज और कविता

कुहरिल भोर का
टिमटिमाता तारा नहीं है कविता
पहली किरण है फैलते सूर्य की
खोलती है जो
बंद मनुष्यों के
कई-कई द्वार
देख बढ़ते जिसे
पीठ पर टिकाये नन्हा बच्चा
गांव की मजदूरिनें
अपने काम पर
जैसे
चील अपनी चोंच में ले
उड़ती है मांस का टुकड़ा
शिकारी नजरों से बच-बचाकर।

अनंत की खोज में निकला पक्षी
अपनी ही धरती के दूसरे कोने को
तलाशता नाविक
टोहता है सही मार्ग
दुरुस्त करता दिशा-ज्ञान
पा लेता है यायावर
जमाने का कोई नवीन यूटोपिया।

स्कूल जाता बच्चा
तेज करता है कदम
और ढलते सूरज को देख
हल से बैल को अलग करता हलवाहा
झाड़कर हाथ-पांव
थोड़ी निश्चिंतता से
सुस्ताता खेत की मेड़ पर
मानो
आ चुका हो
दासता से मुक्ति का
चिर-प्रतीक्षित समय! 
( 9. 1. 97)                                            

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