Tuesday, September 7, 2010

छोटी चीजों का दुख

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीजें
मसलन
मां की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मजदूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख !       

(रचना:18.1.2001)

प्रकाशन: युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010    

2 comments:

  1. काश कि ये छोटी चीजें सचमुच चुनौती बन पाती राजू भाई। प्रायः तो ये 'निजी' प्रसंग और 'टुच्चे' दुख अपने ही दायरे में सिमट कर रह जाते हैं।

    कल देर रात तक मैं Henery Giroux का एक interview पढ़ रहा था। बंदे ने एक पते की बात नोट की है-


    This question has been on my mind for the last 10 years. Central to any notion of politics is the notion of translation. What I mean by that is, we have to be able to understand how private considerations translate into social concerns, and vice versa. But I think that what has happened, and what has made our Democracy so dysfunctional, is that in the 1970s, and especially in the 1980s with Ronald Reagan, we saw the emergence of a kind of market fundamentalism in which the relationship between the private and the public has absolutely collapsed.

    आपके जैसे कवि अगर अपनी कविता में इस संबंध को स्थापित कर पाते हैं तो आप देख लें कि आप किसके ऐंसमक्ष खड़े होने का प्रयास् कर रहे हैं।


    बधाई! अच्छा लगा।

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  2. bade ghane ped ke neeche palne wali ghas kabhi badi nahin ho pati balki hamesha ''kharpatvar''hee kahi jatee hai,
    achchi rachna....
    vandana

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