Thursday, September 2, 2010

गाँव और ग्लोब

मकान की छत छूती आलमारी पर
दुनिया की तमाम हलचल से दूर
निस्पृह, रखा पड़ा है-ग्लोब
हल्का झुका है एक तरफ
किसी बड़ी ताकत की इबादत में शायद

बिखरे हैं जीवन के रंग कई
पुता है भिन्न भिन्न देश
गोलार्धों में बंटा
महादेश हमारा

तय हैं रंग सब के
लिखा है महीन मोटे अक्षरों में
समृद्ध करता हमारा ज्ञान
कि कहां है-कौन देश
किस गोल घेरे के अंदर है वह

गुजरता है क्रमशः पूरा मानचित्र
घूम गया गोल, अचानक
बदहवासी में रहा अक्षम
खोजने में असमर्थ
अपना छोटा गांव

उपयुक्त नहीं उसके लिए क्या
ग्लोब का बनावटी रंग
कोई प्रतीक
भाषा कोई अथवा
भौगोलिक घेरा तंग 
बांध  सके जो
या कि
बड़ी है परिधि इतनी
विस्तार इतना कि
नहीं कर सकता कैद
गिर रहा खुद जो
संभलने की कोशिश में
मानवता की विरुद्ध दिशा!  

(रचना:26.2.97)

प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

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