Saturday, September 4, 2010

शहर में आदमी

शहर की खचाखच भीड़ में
कितना ऊंचा उठ गया है आदमी
अपनी जमीन से
समाज से और
मूल पहचान से
ठीक जैसे खड़ी हो गई
हर मोड़ पर
बहुमंजिली इमारत
यूक्लिप्टस के पेड़
चिमनियों से उठता धुआं
पलटकर नहीं देखते कभी
धरती की प्यारी सतह।    
(27.4.97)

1 comment:

  1. बहुत खूब!अपनी जमीन,
    अपना समाज
    अपनी मूल पहचान की मेरे दोस्त किसके पास पहचान और चिंता है! बधाई कि अपने यह कविता की और लगाई.
    *musafir baitha

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