ठीक अभी देख रहे हैं जहां
मध्यवर्गीय इच्छाओं की तरह
पसरी बहुमंजिली इमारत
खाली था वर्षों से भूखंड यों ही
गर्मियों की सुबह खेलते समवयस्क कुत्ते
दांतकाटी खेल
अपने मुह में दूसरे की पूंछ ले
दौड़ते थे अनथक दौड़
बिल्लियां वहीं दुबकतीं
रात के धने अंधेरे में
टेबल लैंप के जलने से पहले
पब्लिक स्कूल के
भारी बस्ते से बेफिक्र बच्चे
उसे ही मानते
अपना पी. टी. ग्राउंड
देखी है मैंने मकान की नींव पड़ते
साक्षी हूं कि कैसे
अधनंगे मजदूरों ने
धरती को पेरकर बनाये गहरे छेद
सीमेंट, बालू और
लोहे की रॉड के साथ
डाली थी अपनी आत्मा
अपना बेशकीमती श्रम
तौला एक एक ईंट को
तलहत्थियों पर जैसे
पूरा ब्रह्मांड उसकी पकड़ में हो
जेठ की दुपहरी में
पसीने से अजीब हो जाती थी चपचप।
काम करते मजदूर उत्सव मनाते लगते
अलबत्ता थकाता नहीं था उन्हें श्रम
‘मसाला कम पड़ गया काका’
कहते चढ़ जाते
बांस की कमाची जैसी पतली
सीढ़ियों से अकास में
मुझे याद आता कि कैसे
नाप जाता ‘गिरगिटिया’
बड़े से बड़े पेड़ की ऊंचाई
लटकता कैसे फुतलुंगियों से
कुछ भी मानों अलग
अस्तित्व न हो उसका
दिखता ठीक ठीक अंग पेड़ का
लटकता केवल
गुरुत्व बल की दिशा में।
अकेले नहीं थे मजदूर
उतर आये थे कूनबे के साथ मैदान में
नाक से नेटा चुआते बच्चे
घेरे होते वृत्त बनाकर गोल
पत्नियां उठा रही होतीं
बालू भरी कड़ाही
बेकार नहीं था बैठा कोई
यह तो मालिक था
बुत बना जो
देखता एक एक को आश्चर्य से
दिन के उजाले में भी
आंखें फाड़ फाड़कर देखता
मिचमिचा जातीं आंखें
उल्लुओ सी उभरी आगे
सिर्फ वही
नहीं कर रहा होता काम कोई
व्यस्त रहता दिन भर
तानने में छाते धूप की तरफ
दौड़ाता अलग से बच्चों को
पानी के लिए
पड़ोस के चापाकल पर
पीते पानी अचानक
कसैला हो आता मन
सोंचता हो शायद
कि मार देगी
रेत ही देगी गला
अकर्मण्यता उसकी
अ-कला अपनी ?
(26.5.2001)
बहुत उम्दा और गहन रचना. बधाई.
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