मेरी कविताएँ
Sunday, September 12, 2010
समय का रिवाज नहीं रहा
कुछ लोग हैं जो
शब्दों को तोलते हैं
फिर मुह खोलते हैं
सामने बैठे दोस्त से
पूछा मैंने-
कुछ सुना
कहा उसने
जी, समझा
बोलना और सुनना
समय का रिवाज नहीं रहा शायद
(रचना: 21.7.03)
प्रकाशन:
समकालीन कविता
, अक्तूबर-दिसंबर: 2003
2 comments:
Brajesh Kumar Pandey
September 12, 2010 at 7:07 PM
छोटी और धारदार कविता .समय की पूरी सच्चाई बयां करती .बहुत सुन्दर !
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mridula pradhan
September 28, 2010 at 11:54 PM
bahot sunder likhi hai.
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छोटी और धारदार कविता .समय की पूरी सच्चाई बयां करती .बहुत सुन्दर !
ReplyDeletebahot sunder likhi hai.
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