मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
वहशी बादल डर जाते हैं
मेरा गर्वोन्नत सिर पाकर
समय की विभीषिका राख हो जाती है
पैरों तले कुचली जाकर
समुद्र की फेनिल लहरें अदबदा जाती हैं
अपना मार्ग अवरुद्ध देखकर
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल सफेद जड़ें
और पृथ्वी पर उनके भार को हल्का करता हूं
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।
(11.7.01)
बहुत अच्छी रचना
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