आज मौसम की पहली बारिश है
और दिखने लगी हैं चीजें
एकदम साफ साफ
दूर तक पसर गई है धरती
और व्योम का विस्तार कुछ बड़ा हो गया है
डर है कहीं बदलनी ही न पड़े
फूटपाठी किताबों में पढ़ी
क्षितिज की अपनी परिभाषा।
गेंहूं और मसूर की दउनी के बाद
पहली बार भींगे हैं छककर बैल
कितने साफ हो गये हैं
पढ़े जा सकते हैं अंकित
इनकी पीठ पर किसानों के दुख।
उधर खुल गया है मुखिया जी का
पहाड़ सा पुआल का पिंज
हांफे दाफे दौड़ रहे मजदूर
मानों मची हो शहर में
लूट दंगे की।
देखते बदल गया सारा गांव
फूस के ढड्ढरों पर चढ़ चुके हैं पुआल
हंस रहे सारे घर
आपस में बतियाते
यही हो प्रसंग शायद
कि देखो कितने खुश हो लेते हैं
हमारे भी गृहस्वामी
फबते हैं कितने कर्ज के कपड़ों में
और पास बैठा रामधनी
पोंछता है अंगोछे से माथे का पसीना।
मुनिया का घर भी कितना पास आ गया है
ठीक-ठीक समझ सकूंगा
नैनों की भाषा
ईशारे रहस्य नहीं रहेंगे अब
तभी बताते हैं बाबा दूर बसे गांव
बिजौरा के खपड़ों की गिनती और
मेरे मुह से निकलता बदहवास
कितना अच्छा था जाड़े का कोहरा!
(16.6.01)
प्रकाशन:युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002