-डा. विनय कुमार के लिए
होली में
रंगों के बारे में बातें करें
फिर डरें
कि बातों को रंग लग सकते हैं।
(1. 2.10)
Monday, September 13, 2010
Sunday, September 12, 2010
समय का रिवाज नहीं रहा
कुछ लोग हैं जो
शब्दों को तोलते हैं
फिर मुह खोलते हैं
सामने बैठे दोस्त से
पूछा मैंने-
कुछ सुना
कहा उसने
जी, समझा
बोलना और सुनना
समय का रिवाज नहीं रहा शायद
(रचना: 21.7.03)
प्रकाशन: समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003
शब्दों को तोलते हैं
फिर मुह खोलते हैं
सामने बैठे दोस्त से
पूछा मैंने-
कुछ सुना
कहा उसने
जी, समझा
बोलना और सुनना
समय का रिवाज नहीं रहा शायद
(रचना: 21.7.03)
प्रकाशन: समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003
Saturday, September 11, 2010
मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
वहशी बादल डर जाते हैं
मेरा गर्वोन्नत सिर पाकर
समय की विभीषिका राख हो जाती है
पैरों तले कुचली जाकर
समुद्र की फेनिल लहरें अदबदा जाती हैं
अपना मार्ग अवरुद्ध देखकर
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल सफेद जड़ें
और पृथ्वी पर उनके भार को हल्का करता हूं
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।
(11.7.01)
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
वहशी बादल डर जाते हैं
मेरा गर्वोन्नत सिर पाकर
समय की विभीषिका राख हो जाती है
पैरों तले कुचली जाकर
समुद्र की फेनिल लहरें अदबदा जाती हैं
अपना मार्ग अवरुद्ध देखकर
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल सफेद जड़ें
और पृथ्वी पर उनके भार को हल्का करता हूं
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।
(11.7.01)
Friday, September 10, 2010
मां
मैंने कहा-दुख
और मां का चेहरा म्लान हो गया
शिथिल पड़ने लगीं देह की नसें
कहां रही ताकत
जवान गर्म खून की
दौड़ता फिरे जो
अश्वमेध के घोड़े-सा
मैंने कहा-मां
और उसकी आंखों में आंसू आ गए।
(9.7.01)
प्रकाशन: आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8. 2. 2010.
और मां का चेहरा म्लान हो गया
शिथिल पड़ने लगीं देह की नसें
कहां रही ताकत
जवान गर्म खून की
दौड़ता फिरे जो
अश्वमेध के घोड़े-सा
मैंने कहा-मां
और उसकी आंखों में आंसू आ गए।
(9.7.01)
प्रकाशन: आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8. 2. 2010.
Thursday, September 9, 2010
पहली बारिश के बाद
आज मौसम की पहली बारिश है
और दिखने लगी हैं चीजें
एकदम साफ साफ
दूर तक पसर गई है धरती
और व्योम का विस्तार कुछ बड़ा हो गया है
डर है कहीं बदलनी ही न पड़े
फूटपाठी किताबों में पढ़ी
क्षितिज की अपनी परिभाषा।
गेंहूं और मसूर की दउनी के बाद
पहली बार भींगे हैं छककर बैल
कितने साफ हो गये हैं
पढ़े जा सकते हैं अंकित
इनकी पीठ पर किसानों के दुख।
उधर खुल गया है मुखिया जी का
पहाड़ सा पुआल का पिंज
हांफे दाफे दौड़ रहे मजदूर
मानों मची हो शहर में
लूट दंगे की।
देखते बदल गया सारा गांव
फूस के ढड्ढरों पर चढ़ चुके हैं पुआल
हंस रहे सारे घर
आपस में बतियाते
यही हो प्रसंग शायद
कि देखो कितने खुश हो लेते हैं
हमारे भी गृहस्वामी
फबते हैं कितने कर्ज के कपड़ों में
और पास बैठा रामधनी
पोंछता है अंगोछे से माथे का पसीना।
मुनिया का घर भी कितना पास आ गया है
ठीक-ठीक समझ सकूंगा
नैनों की भाषा
ईशारे रहस्य नहीं रहेंगे अब
तभी बताते हैं बाबा दूर बसे गांव
बिजौरा के खपड़ों की गिनती और
मेरे मुह से निकलता बदहवास
कितना अच्छा था जाड़े का कोहरा!
(16.6.01)
प्रकाशन:युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002
Wednesday, September 8, 2010
उत्सव मनाते मजदूर
ठीक अभी देख रहे हैं जहां
मध्यवर्गीय इच्छाओं की तरह
पसरी बहुमंजिली इमारत
खाली था वर्षों से भूखंड यों ही
गर्मियों की सुबह खेलते समवयस्क कुत्ते
दांतकाटी खेल
अपने मुह में दूसरे की पूंछ ले
दौड़ते थे अनथक दौड़
बिल्लियां वहीं दुबकतीं
रात के धने अंधेरे में
टेबल लैंप के जलने से पहले
पब्लिक स्कूल के
भारी बस्ते से बेफिक्र बच्चे
उसे ही मानते
अपना पी. टी. ग्राउंड
देखी है मैंने मकान की नींव पड़ते
साक्षी हूं कि कैसे
अधनंगे मजदूरों ने
धरती को पेरकर बनाये गहरे छेद
सीमेंट, बालू और
लोहे की रॉड के साथ
डाली थी अपनी आत्मा
अपना बेशकीमती श्रम
तौला एक एक ईंट को
तलहत्थियों पर जैसे
पूरा ब्रह्मांड उसकी पकड़ में हो
जेठ की दुपहरी में
पसीने से अजीब हो जाती थी चपचप।
काम करते मजदूर उत्सव मनाते लगते
अलबत्ता थकाता नहीं था उन्हें श्रम
‘मसाला कम पड़ गया काका’
कहते चढ़ जाते
बांस की कमाची जैसी पतली
सीढ़ियों से अकास में
मुझे याद आता कि कैसे
नाप जाता ‘गिरगिटिया’
बड़े से बड़े पेड़ की ऊंचाई
लटकता कैसे फुतलुंगियों से
कुछ भी मानों अलग
अस्तित्व न हो उसका
दिखता ठीक ठीक अंग पेड़ का
लटकता केवल
गुरुत्व बल की दिशा में।
अकेले नहीं थे मजदूर
उतर आये थे कूनबे के साथ मैदान में
नाक से नेटा चुआते बच्चे
घेरे होते वृत्त बनाकर गोल
पत्नियां उठा रही होतीं
बालू भरी कड़ाही
बेकार नहीं था बैठा कोई
यह तो मालिक था
बुत बना जो
देखता एक एक को आश्चर्य से
दिन के उजाले में भी
आंखें फाड़ फाड़कर देखता
मिचमिचा जातीं आंखें
उल्लुओ सी उभरी आगे
सिर्फ वही
नहीं कर रहा होता काम कोई
व्यस्त रहता दिन भर
तानने में छाते धूप की तरफ
दौड़ाता अलग से बच्चों को
पानी के लिए
पड़ोस के चापाकल पर
पीते पानी अचानक
कसैला हो आता मन
सोंचता हो शायद
कि मार देगी
रेत ही देगी गला
अकर्मण्यता उसकी
अ-कला अपनी ?
(26.5.2001)
मध्यवर्गीय इच्छाओं की तरह
पसरी बहुमंजिली इमारत
खाली था वर्षों से भूखंड यों ही
गर्मियों की सुबह खेलते समवयस्क कुत्ते
दांतकाटी खेल
अपने मुह में दूसरे की पूंछ ले
दौड़ते थे अनथक दौड़
बिल्लियां वहीं दुबकतीं
रात के धने अंधेरे में
टेबल लैंप के जलने से पहले
पब्लिक स्कूल के
भारी बस्ते से बेफिक्र बच्चे
उसे ही मानते
अपना पी. टी. ग्राउंड
देखी है मैंने मकान की नींव पड़ते
साक्षी हूं कि कैसे
अधनंगे मजदूरों ने
धरती को पेरकर बनाये गहरे छेद
सीमेंट, बालू और
लोहे की रॉड के साथ
डाली थी अपनी आत्मा
अपना बेशकीमती श्रम
तौला एक एक ईंट को
तलहत्थियों पर जैसे
पूरा ब्रह्मांड उसकी पकड़ में हो
जेठ की दुपहरी में
पसीने से अजीब हो जाती थी चपचप।
काम करते मजदूर उत्सव मनाते लगते
अलबत्ता थकाता नहीं था उन्हें श्रम
‘मसाला कम पड़ गया काका’
कहते चढ़ जाते
बांस की कमाची जैसी पतली
सीढ़ियों से अकास में
मुझे याद आता कि कैसे
नाप जाता ‘गिरगिटिया’
बड़े से बड़े पेड़ की ऊंचाई
लटकता कैसे फुतलुंगियों से
कुछ भी मानों अलग
अस्तित्व न हो उसका
दिखता ठीक ठीक अंग पेड़ का
लटकता केवल
गुरुत्व बल की दिशा में।
अकेले नहीं थे मजदूर
उतर आये थे कूनबे के साथ मैदान में
नाक से नेटा चुआते बच्चे
घेरे होते वृत्त बनाकर गोल
पत्नियां उठा रही होतीं
बालू भरी कड़ाही
बेकार नहीं था बैठा कोई
यह तो मालिक था
बुत बना जो
देखता एक एक को आश्चर्य से
दिन के उजाले में भी
आंखें फाड़ फाड़कर देखता
मिचमिचा जातीं आंखें
उल्लुओ सी उभरी आगे
सिर्फ वही
नहीं कर रहा होता काम कोई
व्यस्त रहता दिन भर
तानने में छाते धूप की तरफ
दौड़ाता अलग से बच्चों को
पानी के लिए
पड़ोस के चापाकल पर
पीते पानी अचानक
कसैला हो आता मन
सोंचता हो शायद
कि मार देगी
रेत ही देगी गला
अकर्मण्यता उसकी
अ-कला अपनी ?
(26.5.2001)
Tuesday, September 7, 2010
छोटी चीजों का दुख
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीजें
मसलन
मां की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मजदूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख !
(रचना:18.1.2001)
प्रकाशन: युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीजें
मसलन
मां की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मजदूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख !
(रचना:18.1.2001)
प्रकाशन: युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010
चांद
Monday, September 6, 2010
माँ
मेरी कविताओं में अक्सर
पत्नी होती है
या होती है अनाम प्रेमिका
मां नहीं होती केवल
कैसे कहूं-
चाहता हूं जब भी
शुरू करना तुमसे
कविता दरक जाती है!
(7.6.97)
पत्नी होती है
या होती है अनाम प्रेमिका
मां नहीं होती केवल
कैसे कहूं-
चाहता हूं जब भी
शुरू करना तुमसे
कविता दरक जाती है!
(7.6.97)
Saturday, September 4, 2010
शहर में आदमी
Friday, September 3, 2010
Thursday, September 2, 2010
गाँव और ग्लोब
मकान की छत छूती आलमारी पर
दुनिया की तमाम हलचल से दूर
निस्पृह, रखा पड़ा है-ग्लोब
हल्का झुका है एक तरफ
किसी बड़ी ताकत की इबादत में शायद
बिखरे हैं जीवन के रंग कई
पुता है भिन्न भिन्न देश
गोलार्धों में बंटा
महादेश हमारा
तय हैं रंग सब के
लिखा है महीन मोटे अक्षरों में
समृद्ध करता हमारा ज्ञान
कि कहां है-कौन देश
किस गोल घेरे के अंदर है वह
गुजरता है क्रमशः पूरा मानचित्र
घूम गया गोल, अचानक
बदहवासी में रहा अक्षम
खोजने में असमर्थ
अपना छोटा गांव
उपयुक्त नहीं उसके लिए क्या
ग्लोब का बनावटी रंग
कोई प्रतीक
भाषा कोई अथवा
भौगोलिक घेरा तंग
दुनिया की तमाम हलचल से दूर
निस्पृह, रखा पड़ा है-ग्लोब
हल्का झुका है एक तरफ
किसी बड़ी ताकत की इबादत में शायद
बिखरे हैं जीवन के रंग कई
पुता है भिन्न भिन्न देश
गोलार्धों में बंटा
महादेश हमारा
तय हैं रंग सब के
लिखा है महीन मोटे अक्षरों में
समृद्ध करता हमारा ज्ञान
कि कहां है-कौन देश
किस गोल घेरे के अंदर है वह
गुजरता है क्रमशः पूरा मानचित्र
घूम गया गोल, अचानक
बदहवासी में रहा अक्षम
खोजने में असमर्थ
अपना छोटा गांव
उपयुक्त नहीं उसके लिए क्या
ग्लोब का बनावटी रंग
कोई प्रतीक
भाषा कोई अथवा
भौगोलिक घेरा तंग
बांध सके जो
या कि
बड़ी है परिधि इतनी
विस्तार इतना कि
नहीं कर सकता कैद
गिर रहा खुद जो
संभलने की कोशिश में
मानवता की विरुद्ध दिशा!
या कि
बड़ी है परिधि इतनी
विस्तार इतना कि
नहीं कर सकता कैद
गिर रहा खुद जो
संभलने की कोशिश में
मानवता की विरुद्ध दिशा!
(रचना:26.2.97)
प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003
प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003
Wednesday, September 1, 2010
चिंतित हैं कुत्ते
वैभव है कुत्तों का
आदिम इतिहास है उनका भी
धरती का सबसे वफादार जीव था
जो घूमता था
हमारी झोंपड़ियों के गिर्द
चमड़ी की फिराक में
शान्त करने को क्षुधा
तब टांगें थी
दौड़ने की कला थी
पकड़ सकता था
जंगली जानवर
शिकारियों से भी तेज
गंध सूंघने की ताकत थी
सूंघ सकता था स्वयं शिकारी को
सख्त से सख्त दांत थे
चीथने को मांस के लोथड़े
हड्डियों से अलग करने की तरकीब थी
लंबी-टेंढ़ी पूंछ थी
हिलाया करता था जिसे
मालिक की वफादारी में
हर फेंके गये टुकड़े के एवज में
उसके पास
इधर चिंतित है कुत्ते
कि अपना लिए धीरे-धीरे
सारे गुण मनुष्यों ने
और बेकार होने लगी है
उसकी अपनी प्रजाति
हुआ है कुछ अजीब-सा मजाक
कि आ गई हैं नस्लें नई-नई
दुमकटे-दुमदबे कुत्तों की
अवकाश के क्षण में बैठा कुत्ता
सोचता है भारी मन से
कि करे इजाद नयी चीज की
दिखे जो ठीक-ठीक पूंछ-सी
हिला-डुला सके
मालिक की धड़कन से भी तेज
और सोच रहा है मनुष्य
बेकार बैठा है कुत्ता
निठल्लापन सिखाएगा पूरी कौम को
फैलाएगा अलग से
वायरस रेबीज का
बेहतर है इससे
भलाई है इसमें
मार दो इसे
चला दो गोली अभी।
( 22. 1. 97)
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