धूप और बारिश का मारा
खोजता फिर रहा था मैं
घनी, छायादार
किसी वृक्ष की टहनी
लेकिन हर बार
मिलता रहा मुझे ठूंठ
जिस पर बन नहीं सकता नीड़ कोई
रूक नहीं सकती बारिश की बूंद
मैं धूप खाता रहा
भींगता रहा बारिश में
अनवरत, अनथक
देख रहे थे लोग
जो आलीशान भवनों की छत के नीचे
खड़े थे चुपचाप!
मुसकाते- मन ही मन। (25.9.91)
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