Monday, September 13, 2010

होली के रंग

-डा. विनय कुमार के लिए     


होली में
रंगों के बारे में बातें करें
फिर डरें
कि बातों को रंग लग सकते हैं।
(1. 2.10)

                                                                                                       

Sunday, September 12, 2010

समय का रिवाज नहीं रहा

कुछ लोग हैं जो
शब्दों को तोलते हैं
फिर मुह खोलते हैं
सामने बैठे दोस्त  से
पूछा मैंने-
कुछ सुना
कहा उसने
जी, समझा
बोलना और सुनना
समय का रिवाज नहीं रहा शायद
(रचना: 21.7.03)

प्रकाशन: समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

Saturday, September 11, 2010

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
वहशी बादल डर जाते हैं
मेरा गर्वोन्नत सिर पाकर
समय की विभीषिका राख हो जाती है
पैरों तले कुचली जाकर
समुद्र की फेनिल लहरें अदबदा जाती हैं
अपना मार्ग अवरुद्ध देखकर
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल सफेद जड़ें
और पृथ्वी पर उनके भार को हल्का करता हूं
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं। 
(11.7.01)

Friday, September 10, 2010

मां

मैंने कहा-दुख
और मां का चेहरा म्लान हो गया
शिथिल पड़ने लगीं देह की नसें
कहां रही ताकत
जवान गर्म खून की
दौड़ता फिरे जो
अश्वमेध के घोड़े-सा
मैंने कहा-मां
और उसकी आंखों में आंसू आ गए।

(9.7.01) 
प्रकाशन:  आजकल, सितंबर 2007; आज समाज, दिल्ली, 8. 2. 2010.

Thursday, September 9, 2010

पहली बारिश के बाद



आज मौसम की पहली बारिश है
और दिखने लगी हैं चीजें
एकदम साफ साफ
दूर तक पसर गई है धरती
और व्योम का विस्तार कुछ बड़ा हो गया है
डर है कहीं बदलनी ही न पड़े
फूटपाठी किताबों में पढ़ी
क्षितिज की अपनी परिभाषा।

गेंहूं और मसूर की दउनी के बाद
पहली बार भींगे हैं छककर बैल
कितने साफ हो गये हैं
पढ़े जा सकते हैं अंकित
इनकी पीठ पर किसानों के दुख।

उधर खुल गया है मुखिया जी का
पहाड़ सा पुआल का पिंज
हांफे दाफे दौड़ रहे मजदूर
मानों मची हो शहर में
लूट दंगे की।

देखते बदल गया सारा गांव
फूस के ढड्ढरों पर चढ़ चुके हैं पुआल
हंस रहे सारे घर
आपस में बतियाते
यही हो प्रसंग शायद
कि देखो कितने खुश हो लेते हैं
हमारे भी गृहस्वामी
फबते हैं कितने कर्ज के कपड़ों में
और पास बैठा रामधनी
पोंछता है अंगोछे से माथे का पसीना।

मुनिया का घर भी कितना पास आ गया है
ठीक-ठीक समझ सकूंगा 
नैनों की भाषा
ईशारे रहस्य नहीं रहेंगे अब
तभी बताते हैं बाबा दूर बसे गांव
बिजौरा के खपड़ों की गिनती और
मेरे मुह से निकलता बदहवास
कितना अच्छा था जाड़े का कोहरा!
(16.6.01)

प्रकाशन:युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002

Wednesday, September 8, 2010

उत्सव मनाते मजदूर

ठीक अभी देख रहे हैं जहां
मध्यवर्गीय इच्छाओं की तरह
पसरी बहुमंजिली इमारत
खाली था वर्षों से भूखंड यों ही
गर्मियों की सुबह खेलते समवयस्क कुत्ते
दांतकाटी  खेल
अपने मुह में दूसरे की पूंछ ले
दौड़ते थे अनथक दौड़
बिल्लियां वहीं दुबकतीं
रात के धने अंधेरे में
टेबल लैंप के जलने से पहले
पब्लिक स्कूल के
भारी बस्ते से बेफिक्र बच्चे
उसे ही मानते
अपना पी. टी. ग्राउंड
देखी है मैंने मकान की नींव पड़ते
साक्षी हूं कि कैसे
अधनंगे मजदूरों ने
धरती को पेरकर बनाये गहरे छेद
सीमेंट, बालू और
लोहे की रॉड के साथ
डाली थी अपनी आत्मा
अपना बेशकीमती श्रम
तौला एक एक ईंट को
तलहत्थियों पर जैसे
पूरा ब्रह्मांड उसकी पकड़ में हो
जेठ की दुपहरी में
पसीने से अजीब हो जाती थी चपचप।

काम करते मजदूर उत्सव मनाते लगते
अलबत्ता थकाता नहीं था उन्हें श्रम
‘मसाला कम पड़ गया काका’
कहते चढ़ जाते
बांस की कमाची जैसी पतली
सीढ़ियों से अकास में
मुझे याद आता कि कैसे
नाप जाता ‘गिरगिटिया’
बड़े से बड़े पेड़ की ऊंचाई
लटकता कैसे फुतलुंगियों से
कुछ भी मानों अलग
अस्तित्व न हो उसका
दिखता ठीक ठीक अंग पेड़ का
लटकता केवल
गुरुत्व बल की दिशा में।

अकेले नहीं थे मजदूर
उतर आये थे कूनबे के साथ मैदान में
नाक से नेटा चुआते बच्चे
घेरे होते वृत्त बनाकर गोल
पत्नियां उठा रही होतीं
बालू भरी कड़ाही
बेकार नहीं था बैठा कोई
यह तो मालिक था
बुत बना जो
देखता एक एक को आश्चर्य से
दिन के उजाले में भी
आंखें फाड़ फाड़कर देखता
मिचमिचा जातीं आंखें
उल्लुओ सी उभरी आगे
सिर्फ वही
नहीं कर रहा होता काम कोई
व्यस्त रहता दिन भर
तानने में छाते धूप की तरफ
दौड़ाता अलग से बच्चों को
पानी के लिए
पड़ोस के चापाकल पर
पीते पानी अचानक
कसैला हो आता मन
सोंचता हो शायद
कि मार देगी
रेत ही देगी गला
अकर्मण्यता उसकी
अ-कला अपनी ?
(26.5.2001)

Tuesday, September 7, 2010

छोटी चीजों का दुख

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीजें
मसलन
मां की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मजदूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख !       

(रचना:18.1.2001)

प्रकाशन: युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002; आज समाज, दिल्ली, 8.2.2010    

चांद

आसमान को तका
और बर्फ-सी चमचम
सफेद दरांती की तरह
उतर आया
फेंफड़ों से होकर पूरे जिस्म में
जाना
दूज का चांद था।
(7.6.97)

Monday, September 6, 2010

माँ

मेरी कविताओं में अक्सर
पत्नी होती है
या होती है अनाम प्रेमिका
मां नहीं होती केवल
कैसे कहूं-
चाहता हूं जब भी
शुरू करना तुमसे
कविता दरक जाती है!
(7.6.97)

Saturday, September 4, 2010

शहर में आदमी

शहर की खचाखच भीड़ में
कितना ऊंचा उठ गया है आदमी
अपनी जमीन से
समाज से और
मूल पहचान से
ठीक जैसे खड़ी हो गई
हर मोड़ पर
बहुमंजिली इमारत
यूक्लिप्टस के पेड़
चिमनियों से उठता धुआं
पलटकर नहीं देखते कभी
धरती की प्यारी सतह।    
(27.4.97)

Friday, September 3, 2010

स्त्री

हमारे सपनों में
खड़ी होती है कहीं
औरत एक
दिखती जो कांपती-सी
हवा के झोंकों से ।      
(27.4.97)

Thursday, September 2, 2010

गाँव और ग्लोब

मकान की छत छूती आलमारी पर
दुनिया की तमाम हलचल से दूर
निस्पृह, रखा पड़ा है-ग्लोब
हल्का झुका है एक तरफ
किसी बड़ी ताकत की इबादत में शायद

बिखरे हैं जीवन के रंग कई
पुता है भिन्न भिन्न देश
गोलार्धों में बंटा
महादेश हमारा

तय हैं रंग सब के
लिखा है महीन मोटे अक्षरों में
समृद्ध करता हमारा ज्ञान
कि कहां है-कौन देश
किस गोल घेरे के अंदर है वह

गुजरता है क्रमशः पूरा मानचित्र
घूम गया गोल, अचानक
बदहवासी में रहा अक्षम
खोजने में असमर्थ
अपना छोटा गांव

उपयुक्त नहीं उसके लिए क्या
ग्लोब का बनावटी रंग
कोई प्रतीक
भाषा कोई अथवा
भौगोलिक घेरा तंग 
बांध  सके जो
या कि
बड़ी है परिधि इतनी
विस्तार इतना कि
नहीं कर सकता कैद
गिर रहा खुद जो
संभलने की कोशिश में
मानवता की विरुद्ध दिशा!  

(रचना:26.2.97)

प्रकाशन:समकालीन कविता, अक्तूबर-दिसंबर: 2003

Wednesday, September 1, 2010

चिंतित हैं कुत्ते

मनुष्यों के जीवन-सा
वैभव है कुत्तों का
आदिम इतिहास है उनका भी
धरती का सबसे वफादार  जीव था
जो घूमता था
हमारी झोंपड़ियों के गिर्द
चमड़ी की  फिराक में
शान्त करने को क्षुधा

तब टांगें थी
दौड़ने की कला थी
पकड़ सकता था
जंगली जानवर

शिकारियों से भी तेज
गंध सूंघने की ताकत थी
सूंघ सकता था स्वयं शिकारी को
सख्त से सख्त दांत थे
चीथने को मांस के लोथड़े
हड्डियों से अलग करने की तरकीब थी
लंबी-टेंढ़ी पूंछ थी
हिलाया करता था जिसे
मालिक की वफादारी में
हर फेंके गये टुकड़े के एवज में
उसके पास

इधर चिंतित है कुत्ते
कि अपना लिए धीरे-धीरे
सारे गुण मनुष्यों ने
और बेकार होने लगी है
उसकी अपनी प्रजाति

हुआ है कुछ अजीब-सा मजाक
कि आ गई हैं नस्लें नई-नई
दुमकटे-दुमदबे कुत्तों की
अवकाश के क्षण में बैठा कुत्ता
सोचता है भारी मन से
कि करे इजाद नयी चीज की
दिखे जो ठीक-ठीक पूंछ-सी
हिला-डुला सके
मालिक की धड़कन से भी तेज

और सोच रहा है मनुष्य
बेकार बैठा है कुत्ता
निठल्लापन सिखाएगा पूरी कौम को
फैलाएगा अलग से
वायरस रेबीज का
बेहतर है इससे
भलाई है इसमें
मार दो इसे
चला दो गोली अभी।
( 22. 1. 97)